- नील सूक्त द्वारा
- पंचम अध्याय द्वारा
- नमक-चमक द्वारा
- सकृत
- लघुरुद्र (एकादश ब्राह्मण द्वारा)
- महारुद्र(एकादश लघुरुद्र द्वारा)
- अतिरुद्र(एकादश महारुद्र द्वारा)
रुद्राभिषेकमें प्रयुक्त होने वाले प्रशस्त द्रव्य
अपने करयागके लिये भगवान् सदाशिवकी प्रसन्नता के निमित्त निष्कामभाव से यजन करना चाहिये, इसका अनन्त फल है। शास्त्रोंमें विविध कामनाओंकी पूर्तिके लिये रुद्राभिष निमित अनेक द्रव्यों का निर्देश हुआ हैं, जिसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-
जलसे रुद्राभिषेक करनेपर वृस्ष्टि होती है, व्याधिकी शान्तिके लिये कुशोदकसे अभिषेक करना चाहिये। पशुप्राप्तिके लिये दही, लक्ष्मीकी प्रतिके लिए इक्षुरस (गन्ने का रस), धनप्राप्ति के लिये मधु तथा घृत एवं मोक्षके लिये तीर्थके जलसे अभिषेक करना चाहिये। पुत्रकी इच्छा करनेवाला दूधद्वारा अभिषेक करनेपर पुत्र प्राप्त करता है।
जलकी धारा भगवान् शिवको अति प्रिय है। अतः ज्वर के कोप को शान्त करनेके लिये जलधारासे अभिषेक करना चाहिये।
एक हजार मन्त्रों सहित घृत की धारासे रुद्राभिषेक करनेपर वंशका विस्तार होता है, इसमें संशय नहीं है। प्रमेहरोगके विनाशके लिये. विशेषरूपसे केवल दुधककी धारासे अभिषेक करना चाहिये, इससे मनोभिलषित कामना की पूर्ति भी होती है। बुद्धिकी जड़ताको दूर करनेके लिये शक्कर मिले दूधसे अभिषेक करना चाहिये, ऐसा करनेपर भगवान् शंकरकी कृपासे उसकी बुद्धि श्रेष्ठ हो जाती है। सरसोंके तेलसे अभिषेक करपेपर शत्रुका विनाश हो जाता है तथा मधुके द्वारा अभिषेक करने पर्यक्षरोग (तपेदिक) दूर हो जाता है। पापक्षयकी इच्छा वाले को मधु (शहद) से, आरोग्यकी इच्छावाको घृत से , दीर्घ आयुकी इच्छावाले को गोदुग्धसे, लक्ष्मीकी कामनावाले को ईख (गन्ने) के रस से और पुत्रार्थी को शर्करा (चीनी) मिक्षित जलसे भगवान् सदाशिव का अभिषेक करना चाहिये। उपर्युक द्रव्योंसे महालिङ्गका अभिषेक करनेपर भगवान् शिव अत्यन्त प्रसन्न होकर भक्तको तत्तत् कामनाओं को पूर्ण करते हैं। अंतः भक्तोंको यजुर्वेदविहित विधानसे रुद्रोंका अभिषेक करना चाहिये।
रुद्रपाठके भेद [ अभिषेक-विधि]
शास्त्रोंमें रुद्रपाठके पाँच प्रकार बताये गये हैं-
१ – रूपक या षडङ्गपात,
२ – रुद्री या एकादशिनी,
३ – लघुरुद्र,
४ – महारुद्र तथा
५ – अतिरुद्र।
यहाँ संक्षेपमें इनका विवरण दिया जा रहा है-
१ – रूपक था षडङ्गपाठ
सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायी १० अध्याय हैं,. प्रथम आठ अध्याधोंने भगवान् रुद्र-शिवकी विशेष महिमा तथा उनकी कृपाशक्तिका वर्णन होनेसे आठ अध्याय रुद्राष्टाध्यायी नामसे प्रसिद्ध हैं। ९वें अध्यायमें “ऋचं वाचं प्रपद्घे० इत्यादि मन्त्र हैं। यह अध्याय शान्यध्यके नामसे जाना जाता है। अन्तिम १०वें अध्यायमें ‘स्वस्ति न इन्द्रो०’ इत्यादि बारह मन्त्र हैं, जी स्वास्तिप्रार्थनाध्यायके नमसे प्रसिद्ध हैं। दस अध्याय होनेपर ही नाम रुद्राष्टाध्यायी है।
इस प्रकार पूरे दस अध्यापको एक सामान्य वृति रूपक या षडङ्गपाठ कहलाता है। रुदके छः अङ्ग कहे गये हैं, इन छः अङ्गका यथाविधि पाठ ही षडङ्गपाठ कहा सकता है।
ये अङ्ग इस प्रकार हैं-
रुद्राष्टाध्यायी के प्रथम अध्यायके ‘यज्जाग्रतो’ से लेकर छः मंत्रों को शिवसंकल्पसूक्त कहा गया है।
यह सूक्त रुद्र का प्रथम हृदरूपी अङ्ग है।
द्वितीय अध्यायके प्रारम्भ से १६ मन्त्रीको पुरुषसूक्त कहते हैं, यह पुरुषसूक्त रुद्र का द्वितीय सिररुपी अङ्ग है। इसी द्वितीय अध्याय के अन्तिम छः मंत्रो को उत्तरनारायणसूक्त कहते हैं।
यह शिखास्थानीय रुद्र का तीसरा अङ्ग है। तृतीयाध्यायके” आशुः शिशान:” से लेकर द्वादश मन्त्रोंको अप्रतिरथ सूक्त कहा जाता है।
यह रुद्र कवचरूप चतुर्थ अंग है। चतुर्थ अध्याय ‘बिभ्राड बृहत्०” मंत्रसे लेकर पूरा चतुर्थ अध्याय मैत्र सूक्त कहलाता है।
यह रुद्रका नेत्ररूप पञ्चम अध्याय है।
”नमस्ते रुद्र०” से प्रारम्भकर पूरा पंचम अध्याय शतरुद्रिय कहलाता है। यह रुद्रका अस्त्र रूपी षष्ठ अङ्ग है। पंचम अध्याय के मन्त्री मे ‘नमस्ते’ पदके प्राधान्यसे इसे ‘नमकाध्याय’ भी कहा जाता है।
इन छः अङ्गों (पाँच अध्यायों) का पाठ करनेके पक्षात् षष्ठ अध्याय तथा सप्तम अध्यायका पाठ होता है। ‘वय.ँ् सोम’ आदि अष्ट-मन्त्रात्मक षष्ट अद्याय रुद्रके ‘महच्हिर’ के नामसे जाना जाता है। ‘उग्रच्श्र”० इत्यादि सप्त- मात्रात्मक सप्तम अध्याय ‘जटा’ नामसे विख्यात है। इन दो अध्यायोंके पाठ के अनन्तर आठवे “चमकाध्यायका” पाठ करना चाहिये।
इस अध्याय मन्त्रोंमें ‘च’ कार और ‘मे’ का बाहुल्य होनेसे यह अध्याय ‘चमकाध्याय’ कहलाता है। इस अध्याय के पाठके अनन्तर अन्तमें शान्त्यध्याय तथा स्वस्तिप्रार्थनाध्यायका पाठ करना चाहिये। इस प्रकार सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायी के दस अध्यायोंका पाठ षडङ्ग या रूपकपाठ कहलाता है। षडङ्गपाठमें विशेष बात यह है कि इसमें आठवें अध्यायके साथ पाँचवें अध्यापकी आवृत्ति नहीं होती।
२. रुद्री या एकादशिनी
षड अंग पाठ में नमकध्याय (पञ्चम) तथा चमकाध्याय (अष्टम) का संयोजन कर रुद्राध्यायकी की गयी ग्यारह आवृत्तिको रुद्री या एकादशिनी कहते हैं। आठवें अध्यायके के साथ पाँचवे अध्याय की जो आवृति होती है, उसके लिये शास्त्रका निश्चित विधान है,।
तद्नुसार आठवें अध्यायके क्रमशः चार-चार तथा फिर चार मंत्रो, तीन-तीन तथा पुनः तीन मन्त्रों; तदनन्तर दो मंत्र ,फिर एक-एक मन्त्र और पुनः दो मंत्रो के अनन्तर पूरे पाँचवें अध्याय (नमक) की एक-एक आवृति होती है। अन्तमें शेष दो मंत्रो का पाठ होता है। इस प्रकार आठवें अध्यायके कुल उन्तीस मंत्रो को रुद्रो की संख्या ग्यारह होनेके कारण ग्यारह अनुवाकोंमें विभक किया गया है- ऐसा रुद्र-कल्प-द्रुम में बताया गया है। इसके बाद नवें और दसवें अध्यायका पाठ होता है। इस प्रकार की गयी एक आवृत्तिको रुद्री या एकादशिनी कहते हैं।
3. लघुरुद्र
एकादशिनी रुद्रीकी ग्यारह आवृत्तियोंके पाठको लघुरुद्र पाठ कहा जाता है। यह लघुरुद्र-अनुष्ठान एक दिनमें ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ सम्पन्न किया जा सकता है तथा एक ब्राह्मण द्वारा रअथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादशिनी-पाठ नित्य करनेपर भी लघुरुद्रकी सम्पन्नता होती है।
४. महारुद्र
लघुरुद्रकी ग्यारह आवृति अर्थात् एकादशिनी रद्रीका १२१ आवृत्तिपाठ होनेपर महारुद्र-अनुष्ठान होता है। यह पाठ ११ ब्राह्मणों द्वारा ग्यारह दिन तक कराया जा सकता है तथा एक दिन भी ब्राह्मणोंको संख्या बढ़ाकर १२१ पाठ होनेपा महारुद्र-अनुष्ठान सम्पन्न हो जाता है।
५. अतिरुद्र
महारुद्र की ग्यारह आवृति अर्थात् एकादशिनी रुद्री का १३३१ पाठ होनेसे अति रुद्रअनुष्ठान सम्पन होता है।
ये अनुष्ठान पाठात्मक, अभिषेकात्मक तथा हवनात्मक तीनों प्रकारसे किये जा सकते हैं। शास्त्रोंमें इन अनुष्ठानोंकी अत्यधिक महिमा का वर्णन है